आज पहली बार ऐसा लगा
कि ये पत्थर रो रहे हैं।
अपनी बेबसी पर बस
लाल आंसू छोड़ रहे हैं।
मौनव्रत में स्थित, ये शिलाखंड
अपनी बारी के इंतज़ार में,
जम्हाई तक
लेना भूल गए हैं।
भूल गए झुरमुट में बैठे
पक्षियों के कलरव,
बरसाती नालों का कल-कल।
इनके गोद में खेलता, गुदगुदाता,
जानवरों के झुंड,
कहाँ गुम हो गए
इनके गुलदस्तों के फूल।
अब तो भारी मशीनों द्वारा
रोंदियाँ जाने से,
छोटे बड़े बारूद के धमाकों से,
बड़े बड़े चट्टानों को तोड़ रहे हैं,
भयभीत ये पत्थर, बस
लाल आंसू छोड़ रहे हैं।
इन्हें बहुत समझाया मैंने
यूँ रो रो कर
खुद को लाल क्यों करना है?
यह परिवर्तन की धारा है,
इसपर शोक क्यों मनाना है?
अल्पज्ञानी गीता का,
मैं यूँ ही समझा रहा था,
जैसे आत्मा अमर है,
शिलाखंड चूर-चूर होकर
जगह बदलकर भी आप पर्वत राज हैं
आपके गर्भ के कोयले से रोशनी लेकर
ये दुनियाँ आज आबाद है।
दधीचि की तरह
आपके कोयले के अतिरिक्त
मलबों से सड़क के गड्ढे भरते हैं,
आपके आंसू इसे सींचते हैं,
इन्हीं कार्यों में लगे लाखों लोग,
जो अब चैन की साँस खींचते हैं।
समझाइस ज़्यादा न हो,
सो इन्हें नमस्कार कर,
अपनी पीठ खुद थपथपाकर,
कालर थोड़ा उठाकर,
अपने घर की राह ले ली।
दूसरे दिन फिर वही शिलाखंड,
अनवरत रो रहे थे।
ऐसा लग रहा था
कि मैंने उनकी आह ले ली।
मानो हिक़ारत भरी भावों से
धिक्कार रहा हो,
वो उपजाऊ ज़मीन
जो हज़ारों वर्षों के तपस्या का फल था,
एक मिनट में उलट पलट कर
श्मशान घाट में तब्दील हो चुका है।
नदी नालों के जल में
गन्दगी मिलाने वालों
हे इंसान
तु कितना तंगदिल हो चुका है।
रोशनी पाकर खुश हो रहे हो,
इसलिए कोयला निकालते जा रहे हो
शायद पता हो, वायुमंडल में कितना
कार्बन डाई-आंक्साइड मिलाते जा रहे हो।
तब मुझे लगा कि हमने
विकाश की अधूरी परिभाषा बनाकर
सबसे ज़्यादा खुद को छला है।
अंतरिक्ष का सबसे मनोरम धरोहर,
यह धरती संतप्त है, यह जानकर कि
हमसे ज़्यादा यहाँ का जानवर भला है।
हमसे ज़्यादा यहाँ का जानवर भला है।





